“यदि हम अपने समाज को महिलाओं के लिए समावेशी बनाना चाहते हैं, तो हमें हमारे प्रशासनिक एवं समाजवादी विचारधारा में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है,” हम लोग किस प्रकार से महिलाओं से जुड़े मुद्दों को एक अलग तरीके से देखने का भाव दर्शाते हैं, जबकि हमें वास्तव में यह देखना चाहिए कि महिलाएँ किस प्रकार से समाज में अपना महत्वपूर्ण योगदान करती हैं, मीरा शंकर कहा।
जेरेमी इंग्लैंड ने इस बारे में बताया कि क्यों आईसीआरसी, समावेश के विषय को इतनी गंभीरता से ले रहा है। “समावेश, प्रगति की एक आवश्यक शर्त है। जब लोग अपने को जुड़ा हुआ तथा सम्मानित महसूस करते हैं और यह समसूस करते हैं कि उनमें आगे बढ़ने की योग्यता है, वास्तविक समावेश का भाव तब पैदा होता है,“समावेश “किस प्रकार से” महत्वपूर्ण है, जिसके कारण ही उपरी स्तर से विचारों और क्रियाकलापों में बदलाव आने लगते हैं, इसपर जोर डालते हुए उन्होंने ये बातें सामने रखीं। यह एक टास्कफोर्स के गठन, लक्ष्य तैयार करने, समर्थकों को शक्तिवान बनाने और प्रशासनिक बदलाव लाने के कार्य को आवश्यक बना देता है, जिसके लिए नेतृत्व की सहायता सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
अपने सत्र में डॉ सागर ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि आघात और विपदा के क्षेत्रों में महिलाओं की आवाज बमुश्किल से ही सुनी जाती है। चूंकि आपदा वाले क्षेत्र में केवल पुरुषों वाले दलों को एक साथ रखना बहुत ही आसान होता है, प्रशासन इतना तक भी नहीं सोचता है कि एक महिला डॉक्टर को वहाँ भेजा जाए, जबकि विपदाग्रस्त क्षेत्रों में आधी आबादी महिलाओं की होती है और इन सबके परिणामस्वरूप, “उनके स्वास्थ्य, स्वच्छता और आघात की जरुरतों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जाता है।“
अल्बीना शंकर ने कहा कि दिव्यांग महिलाएँ बहुआयामी विभेद झेलती हैं, गरीबी के कारण, उनके दिव्यांग होने के कारण और इस तथ्य के कारण कि वे महिलाएँ हैं। “अधिकांशतः एक दिव्यांग लड़की को उसके अपने परिवार की भी स्वीकार्यता नहीं प्राप्त होगी।“ उस समय, उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि दिव्यांग लोगों को अपना जीवन, पूरे सम्मान और आत्मनिर्भरता से जीने के लायक बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के सहायक सरंचनाएँ मौजूद हैं, विशेषकर शिक्षा, प्रशिक्षण और सहायक उपकरणों का उपयोग कैसे किया जाए, इन क्षेत्रों में।
नीति, तटस्थता तथा प्रभावित लोगों तक पहुँचने, दिव्यांगता को ध्यान में रखते हुए समावेश की दिशा में व्यवहारिक कदम उठाने जैसे विषयों पर, दर्शकगण भी पैनल के वार्ताकारों से मुखातिब हुए। समावेश प्रत्यक्ष तौर पर, पूरे समाज के लिए व्यवहारिकता का एक भाव लाता है क्योंकि यह सृजनात्मकता को उद्वेलित करता है, मूल्यों को समाहित करता है और समग्र रूपरेखा में सुधार लाता है, लेकिन उसी समय इसे विधायिका, विनियमों के सहारे के बिना केवल परिचर्चा तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता है और इसे मनोवृति में एक स्पष्ट बदलाव के रूप में देखा जाना चाहिए, जैसा अधिकांश लोगों ने व्यक्त किया है।
‘समावेशी कार्यक्रम बनाना’ विषय पर आईसीआरसी पैनल परिचर्चा

(एल-आर) अल्बीना शंकर, निदेशक, मोबिलिटी इंडिया;जेरेमी इंग्लैंड, क्षेत्रीय प्रतिनिधि दल की प्रमुख, आईसीआरसी;मीरा शंकर, पूर्व भारतीय राजदूत तथा डॉ. सुषमा सागर, ट्रॉमा सर्जन, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, आईसीआरसी के कार्यालय में “समावेशी कार्यक्रम बनाना” विषय पर पैनल परिचर्चा करते हुए।
“यदि हम अपने समाज को महिलाओं के लिए समावेशी बनाना चाहते हैं, तो हमें हमारे प्रशासनिक एवं समाजवादी विचारधारा में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है,” हम लोग किस प्रकार से महिलाओं से जुड़े मुद्दों को एक अलग तरीके से देखने का भाव दर्शाते हैं, जबकि हमें वास्तव में यह देखना चाहिए कि महिलाएँ किस प्रकार से समाज में अपना महत्वपूर्ण योगदान करती हैं, मीरा शंकर कहा।
जेरेमी इंग्लैंड ने इस बारे में बताया कि क्यों आईसीआरसी, समावेश के विषय को इतनी गंभीरता से ले रहा है। “समावेश, प्रगति की एक आवश्यक शर्त है। जब लोग अपने को जुड़ा हुआ तथा सम्मानित महसूस करते हैं और यह समसूस करते हैं कि उनमें आगे बढ़ने की योग्यता है, वास्तविक समावेश का भाव तब पैदा होता है,“समावेश “किस प्रकार से” महत्वपूर्ण है, जिसके कारण ही उपरी स्तर से विचारों और क्रियाकलापों में बदलाव आने लगते हैं, इसपर जोर डालते हुए उन्होंने ये बातें सामने रखीं। यह एक टास्कफोर्स के गठन, लक्ष्य तैयार करने, समर्थकों को शक्तिवान बनाने और प्रशासनिक बदलाव लाने के कार्य को आवश्यक बना देता है, जिसके लिए नेतृत्व की सहायता सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
अपने सत्र में डॉ सागर ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि आघात और विपदा के क्षेत्रों में महिलाओं की आवाज बमुश्किल से ही सुनी जाती है। चूंकि आपदा वाले क्षेत्र में केवल पुरुषों वाले दलों को एक साथ रखना बहुत ही आसान होता है, प्रशासन इतना तक भी नहीं सोचता है कि एक महिला डॉक्टर को वहाँ भेजा जाए, जबकि विपदाग्रस्त क्षेत्रों में आधी आबादी महिलाओं की होती है और इन सबके परिणामस्वरूप, “उनके स्वास्थ्य, स्वच्छता और आघात की जरुरतों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जाता है।“
अल्बीना शंकर ने कहा कि दिव्यांग महिलाएँ बहुआयामी विभेद झेलती हैं, गरीबी के कारण, उनके दिव्यांग होने के कारण और इस तथ्य के कारण कि वे महिलाएँ हैं। “अधिकांशतः एक दिव्यांग लड़की को उसके अपने परिवार की भी स्वीकार्यता नहीं प्राप्त होगी।“ उस समय, उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि दिव्यांग लोगों को अपना जीवन, पूरे सम्मान और आत्मनिर्भरता से जीने के लायक बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के सहायक सरंचनाएँ मौजूद हैं, विशेषकर शिक्षा, प्रशिक्षण और सहायक उपकरणों का उपयोग कैसे किया जाए, इन क्षेत्रों में।
नीति, तटस्थता तथा प्रभावित लोगों तक पहुँचने, दिव्यांगता को ध्यान में रखते हुए समावेश की दिशा में व्यवहारिक कदम उठाने जैसे विषयों पर, दर्शकगण भी पैनल के वार्ताकारों से मुखातिब हुए। समावेश प्रत्यक्ष तौर पर, पूरे समाज के लिए व्यवहारिकता का एक भाव लाता है क्योंकि यह सृजनात्मकता को उद्वेलित करता है, मूल्यों को समाहित करता है और समग्र रूपरेखा में सुधार लाता है, लेकिन उसी समय इसे विधायिका, विनियमों के सहारे के बिना केवल परिचर्चा तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता है और इसे मनोवृति में एक स्पष्ट बदलाव के रूप में देखा जाना चाहिए, जैसा अधिकांश लोगों ने व्यक्त किया है।
