इं‍टरनेशनल डे ऑफ दि डिसअपियर्ड के अवसर पर, इंटरनेशनल कमेटी ऑफ रेड क्रॉस (ICRC) ने ‘दि डॉल्‍स फ्यूनरल (The Doll’s Funeral)’ नाम की 11 मिनट की एक डक्‍यूमेंटरी रिलीज़ की जो कि एक ऐसी मां की मार्मिक कहानी पर आधारित है जिसकी बेटी नेपाल में सशस्‍त्र संघर्ष के दौरान खो गई थी। भोजाली चौधरी ICRC की मदद से आखिरकार उस स्‍थान तक पहुंचने में सफल रहीं जहां उनकी बेटी को अंतिम बार देखा गया था। गांव वापस आकर परिवार ने एक गुडि़या को दफ़ना कर सांकेतिक अंतिम संस्‍कार करने का निर्णय लिया। भोजाली का यह कृत्‍य अनूठा है तथा नेपाल में लापता लोगों के परिवारों की पीड़ा तथा मानसिक कष्‍ट को बयान करता है।

1996 तथा 2006 के मध्‍य नेपाल में नेपाल सरकार तथा तत्‍कालीन नेपाल कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (माओवादी) के बीच घरेलू सशस्‍त्र संघर्ष छिड़ गया था। इस दौरान 15,000 से अधिक लोग मारे गए थे। आज के दिन तक, 1,300 से अधिक लोग उनके परिवारों द्वारा अभी भी लापता बताए जाते हैं। सरकार की ओर से कोई आधिकारिक उत्‍तर या साक्ष्‍य न मिलने से उनके परिवार अपने लापता प्रियजनों से संबंधित दुर्भाग्‍य तथा अनिश्चितता के साथ जीने के लिए विवश हैं। उनके लिए युद्ध के जख्‍़म आज तक हरे हैं।

संघर्ष के दौरान तथा बाद में, इंटरनेशनल कमेटी ऑफ दि रेड क्रॉस (ICRC) के प्रतिनिधि पूरे नेपाल में लापता लोगों के परिवारों से नियमित रूप से मिलते रहे। उन्‍होंने उनके प्रियजनों के साथ घटित होने वाली घटना के बारे में पता लगाने के लिए उनके साथ मिल कर व्‍यापक रूप से कार्य किया। ICRC ने विशेषज्ञ गैर सरकारी संगठनों तथा नेपाल रेड क्रॉस सोसाइटी के सहयोग से नेपाल में लापता हुए लोगों के 90% से अधिक परिवारों को मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक तथा कानूनी सहायता प्रदान की।

नेपाल में, जोगीमारा में कुछ गांव तब सुर्खियों में आए जब वहां के अनेक लोगों के लापता होने की सूचना मिली। 2001 में, 20 युवक अपने घर से मध्‍य-पश्चिमी नेपाल में कालीकोट जिले में एयरपोर्ट रनवे पर कार्य करने के लिए गए। तीन महीने बाद रेडियो पर यह समाचार सुनाया गया गया कि उनमें से 17 मार दिए गए हैं। 2012 में, उन 17 परिवारों की इच्‍छानुसार ICRC ने घटनास्‍थल तक पहुंचने में उनकी मदद की। वहां उन शोकग्रस्‍त परिवारों ने मृत लोगों की आत्‍मा की शांति के लिए अंतिम संस्‍कार करने का निर्णय लिया। ICRC ने उनकी यात्रा के बारे में एक फिल्‍म निर्मित की है जिसका नाम ‘डोन्‍ट गो सो फार’ है। ©ICRC

ऐसे ही परिवारों के साथ आत्‍मीयता से कार्य करते हुए ICRC के सामने भोजाली चौधरी का मामला आया, जिनकी बेटी सघर्ष के दौरान खो गई थी। एक दशक से ज्‍यादा समय बीत जाने के बाद भी भोजाली के दिल में अपनी बेटी की यादें ताज़ा थीं। वह मानसिक कष्‍ट में थी, और निराशापूर्वक अपनी बच्‍ची के बारे में सवालों के उत्‍तर तलाश रही है। ICRC की मदद से वह अंतत: उस स्‍थान तक पहुंच गई जहां उसकी बेटी को आखिरी बार देखा गया था। उसकी मार्मिक कहानी को 11 मिनट की डक्‍युमेंटरी ‘दि डॉल्‍स फ्यूनरल (The Doll’s Funeral)’ में दर्शाया गया है।

2016 में निर्मित इस फिल्‍म में भोजाली के परिवार के उस दुखदायी स्‍थान तक पहुंचने की भावनात्‍मक यात्रा को दर्शाया गया है। गांव वापस आकर परिवार ने एक गुडि़या को दफ़ना कर सांकेतिक अंतिम संस्‍कार करने का निर्णय लिया। खोई हुई बच्‍ची का प्रतिनिधित्‍व करने वाली वह गुडि़या पवित्र घास से बनाई गई थी और उसे उसी बच्‍ची के कपड़े पहनाए गए थे। इस अंतिम संस्‍कार ने शोकग्रस्‍त परिवार और समुदाय की तकलीफ़ कम करने में मदद की और कई वर्षों तक तकलीफ़देह अनिश्चितता के अंधेरे में जीने के बाद उन्‍हें मामूली राहत मिली।

भोजाली चौधरी ने खोई हुई अपनी बेटी का प्रतिनिधित्‍व करने वाली गुडि़या को कस कर पकड़े हुए। परंपरा के अनुसार, वह गुडि़या पवित्र घास से बनी है और उसे उसी बच्‍ची के कपड़े पहनाए गए हैं। ©ICRC

‘मैं यहां अपने दिल को सांत्‍वना देने आयी हूं। मैंने बहुत जगहों पर तुम्‍हारी तलाश की। कुछ लोग कहते थे कि तुम पांच साल बाद वापस आओगी। लेकिन मुझे ये डर था कि कहीं तुम्‍हारी हत्‍या करके न फेंक दिया गया हो। लेकिन मेरे दिल ने नहीं माना कि तुम्‍हारी मृत्‍यु हो चुकी है।’

भोजाली का यह मार्मिक बयान उन परिवारों के कष्‍टों के बारे में समझने में मददगार है जिनके प्रियजनों की तलाश आज तक नहीं की जा सकी है। यहां तक कि आज भी उन परिवारों की प्राथमिक ज़रूरत वही है कि वे जानना चाहते हैं कि उनके प्रियजनों के साथ क्‍या हुआ। और अधिकारियों का दायित्‍व है कि वे उनके उत्‍तर दें।

जोगीमारा, नेपाल से आया एक पिता जिसके हाथ में कालीकोट के ग्रामीणों द्वारा दिया गया उसके लापता पुत्र का फोटो है। ©ICRC

2015 में, नेपाल सरकार ने कमीशन ऑफ इन्‍वेस्‍टीगेशन ऑन एन्‍फोर्स्‍ड डिसअपियर्ड पर्सन्‍स नाम के आयोग का गठन किया। इस आयोग को लापता लोगों के बारे में जांच का कार्य सौंपा गया। संघर्ष के 12 साल बाद, भोजाली की कहानी लापता लोगों के उन परिवारों की पीड़ा की याद दिलाती है जिन्‍हें आज भी अपने प्रियजनों के साथ घटित होने वाली इस त्रासदी से जुड़े सवालों के उत्‍तर की तलाश है।

संघर्ष में लापता होना : एक विश्‍वव्‍यापी त्रासदी

इंटरनेशनल कमेटी ऑफ दि रेड क्रॉस (ICRC) के पास ऐसे संघर्षों तथा हिंसा की अन्‍य स्थितियों के दौरान लापता हुए लोगों के गोपनीय डेटा को संग्रहीत करने तथा उन्‍हें ख़ोजने का 150 साल से ज्‍यादा का अनुभव है। अतीत के युद्धों तथा दुनिया भर में होने वाले वर्तमान सशस्‍त्र संघर्षों के दौरान लोगों के लापता होने का मामला इसके सर्वाधिक विनाशकारी तथा दीर्घकालिक प्रभावों में से एक होता है। दुनिया भर में सशस्‍त्र संघर्ष के परिणामस्‍वरूप लाखों लोग अभी भी लापता हैं और हो रहे हैं। बहुत सारे मामलों में, उनके परिवारों को उनके इस दुर्भाग्‍य के बारे में कोई सूचना नहीं मिल पाती है। लापता हुए लोगों के परिवारों को यह जानने का अधिकार है कि उनके प्रियजनों के साथ क्‍या हुआ, और अधिकारियों का यह कर्तव्‍य है कि उन्‍हें उनके सवालों के ज़वाब दें। सशस्‍त्र संघर्ष से पहले, उसके दौरान तथा उसके बाद, अधिकारियों का यह पहला कर्तव्‍य होता है कि लापता होने की घटनाओं की रोकथाम करें और सूचना के अधिकार का सम्‍मान करें।